Saturday, January 15, 2011

अतुलनीय जिनके प्रताप का, ..



         रामनरेश त्रिपाठी

अतुलनीय जिनके प्रताप का, 
साक्षी है प्रत्यक्ष दिवाकर ।
घूम-घूम कर देख चुका है, 
जिनकी निर्मल कीर्ति निशाकर ।।
देख चुके हैं जिनका वैभव ,
येनभ के अनन्त तारागण।
अगणित बार सुन चुका है नभ,


जिनका विजय घोष रण गर्जन।।1।।
शोभित है सर्वोच्च मुकुट से,
जिनके दिव्य देश का मस्तक ।
गूंज रहीं है सकल दिशाए ,
जिनके जय गीतों से अब तक ।।
जिनकी महिमा का है अविरल,
साक्षी सत्य. रूप हिम गिरि वर।
उतरा करते थे विमान .दल,
जिसके विस्तृत वक्ष स्थल पर।।2।।


सागर निज छाती पर जिसके ,
अगणित अर्णव पोत उठाकर ।
पहुंचाया करता था प्रमुदित,
भूमंडल के सकल तटों पर।।
नदियां जिसकी यश धारा सी,
बहनी हैं अब भी निशि वासर।
ढूंढो,उनके चरण चिन्ह भी ,
पओगे तुम इनके तट पर।।3।।


विषुवत् रेखा का वासी जो ,
जीता है नित हांफ हाफ कर।
रखता है अनुराग अलौकिक,
वह भी अपनी मातृ भूमि पर।।
ध्रुववासी जो हम में हम में ,
जी लेता है कांप कांप कर ।
वह भी अपनी मातृ भूमि पर,
कर देता है प्राण निछावार।।4।।


तुम हो हे प्रिय बन्धु स्वर्ग सी,
सुखद सकल विभवों की आकर।
धरा शिरोमणि मातृ भूमि में,
धन्य हुए हो जीवन पाकर ।।
तुम जिनका जल अन्न ग्रहण कर ,
बडे़ हए लेकर जिसकी रज।
तन रहते कैसे तज दोगे,
उसकों हे वीरो के वंशज।।5।।


जब तक साथ एक भी दम हो,
हो अवशिष्ट एक भी धड़कन।
रखों आत्म गौव से उंची,
पलकें उचा सिर उचां मन।
एक बूंद भी रक्त शेष हो ,
जब तक मन से हे सत्रुंजय ।
दीन वचन मुख से न उचारों,
मानों नहीं मृत्यु का भय ।।6।।


निर्भय स्वागत करों मृत्यु का ,
मृत्यु एक है विश्राम स्थल ।
निवन यहा फिर चलता है,
धारण कर वन जीवन संबन ।
मृत्यु एक सरिता है जिसमें,
श्रम से कातर जीव नहाकर।
फिर जिवन धारण करता है,
काया रूपी वस्त्र बहाकर ।।7।।


सच्चा प्रेम वहीं है जिसकी ,
तृप्ति बलि पर हो निर्भर ।,
त्याग विना निष्प्राण प्रेम है,
अमल असीत त्याग से विलसित।
अत्मा के विकास से जिसमें ,
मनुष्यता हाती है विकसित।।8।।
    (स्वप्न)
प्रस्तुति शंकर वर्मा शनिवार 15 जनवरी 2011

रामनरेश त्रिपाठी

             (१८८९-१९६२)
           जीवन परिचय:-
रामनरेश त्रिपाठी का जन्म जौनपुर जनपद के कांइरीपुर नामक गांव में एक कृषक परिवार में सन् 1889ई0.में हुआथा। आपके पिता रामदत्त त्रिपाठी परम धार्मिक प्रवृत्ति के व्यक्ति थे। अपकी प्रारम्भिक शिक्षा गांव की पाठशाला में हुई। विद्यालयी शिक्षा कक्षा नौ तक ही जारी रह सकी। बाद में आपने स्वाध्याय से हिन्दी, अग्रेंजी, संस्कृत, बंगला और गुजराती का ज्ञान अर्जित किया। कविता की प्रेरणा उन्हें गांव की पाठशाला के प्रधानार्चाय से मिली और अपनी काव्य इन्होंने ब्रजभाषा में समस्यापूर्ति से आरम्भ की। बाद में 'सरस्वती' पत्रिका से आप खड़ीबोली में काव्य रचना करने लगे। आप द्विवेदी युगऔर छायावादी युग की प्रमुख कड़ी के रूप  में जाने जाते है। आपका व्यक्तित्व बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न है।1962 ई को इनका निधन हो गया ।प्रस्तुति शंकर वर्मा शनिवार 15 जनवरी

शनिवार, 15 जनवरी सन 2011


शनिवार, 15 जनवरी सन 2011युगाब्द 5112, विक्रम संवत् 2067,
शालिवाहन शक (शक संवत्) 1932,
संवत्सर नाम : शोभन
उत्तरायण, शिशिर ऋतु।
शनिवार, 15 जनवरी सन 2011

 
मास : पौष।
पक्ष : कृष्ण।
तिथि : दशमी तिथि सुबह 8 बजकर 45 मिनट तक, इसके बाद एकादशी तिथि शुरू।
वार : शनिवार।
नक्षत्र : कृतिका नक्षत्र अर्द्धरात्रि 2 बजकर 20 मिनट तक, इसके बाद रोहिणी नक्षत्र की शुरुआत।
योग : शुभ योग शाम 6 बजकर 17 मिनट तक, इसके बाद शुक्ल योग शुरू।
करण : गरकरण सुबह 8 बजकर 45 मिनट तक, इसके बाद वणिजकरण शुरू।
ग्रह स्थिति : चंद्रमा सुबह 7 बजकर 37 मिनट पर वृष राशि में प्रवेश करेगा।

प्रस्तुति : शंकर वर्मा। 15 जनवरी, 2011

Thursday, January 13, 2011

गुरुवार, 13 जनवरी सन 2011

गुरुवार, 13 जनवरी सन 2011
युगाब्द 5112, विक्रम संवत् 2067,
शालिवाहन शक (शक संवत्) 1932,
संवत्सर नाम : शोभन
उत्तरायण, शिशिर ऋतु।
गुरुवार, 13 जनवरी सन 2011
 
मास : पौष।
पक्ष : कृष्ण।
तिथि : नवमी।
वार : गुरुवार।
नक्षत्र : अश्विनी नक्षत्र रात 11 बजकर 33 मिनट तक, इसके बाद भरणी नक्षत्र की शुरुआत।
योग : सिद्धि योग शाम 7 बजे तक, इसके बाद साध्य योग शुरू।
करण : बालवकरण शाम 6 बजकर 58 मिनट तक, इसके बाद कौलवकरण शुरू।
ग्रह स्थिति : चंद्रमा दिनरात मेष राशि में संचार करेगा। आज ही लोहड़ी पर्व
  प्रस्तुति: शंकर वर्मा। गुरुवार, 13. जनवरी 2011

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल


आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का (जन्मः1884 ई. देहावसानः1941ई.)
जीवन परिचय 
आर्चाय रामचन्द्र शुक्ल  का जन्म 1884 ई.में बस्ती जनपद के अगोना नामक ग्राम में हुआ। इनके पिता श्री चन्द्रबली  शुक्ल सरकारी कर्मचारी थे। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा राठ (हमीरपुर)में हुई। इसके पश्चात् इन्होंने मिर्जापुर से हाईस्कुल की परीक्षा उत्तीर्ण की। इसके बाद नियमित विद्यालय शिक्षा का क्रम टूट गया। मीरजापुर के ही मिशन कला अध्यापक के रूप में अध्यापन कार्य प्रारम्भ किए। बाद में ‘शुक्ल जी हिन्दी ‘शब्द सागर के सम्पादन में वैतनिक सहायक के रूप में बनारस आ गये। यही पर काशी नागरीक प्रचारिणी सभा के विभिन्न पदों पर कार्य पूरा करते हुए ख्याति प्राप्त की । आपने कुछ दिनों तक हिन्दी प्रचारिणी पत्रिका का सम्पादन भी किया । कोश का कार्य पूरा हो जाने के बाद आप हिन्दू विश्वविद्यालय में अध्यापक के रूप में नियुक्त हो गये। बाबू शयामसुन्दर दास के अवकाश ग्रहण करने के पश्चात् आप  हिन्दू विश्वविद्यालय में ही हिन्दी विभाग के विभागध्यक्ष हो गये सन् 1941 ई. में हृदय गति रूकने से आपका देह वासन हो गया । 
                        प्रस्तुति: शंकर वर्मा। गुरुवार, 13.1. जनवरी 2011

ईर्ष्या तू न गई मेरे मन से


-                                                               रामधारी सिंह दिनकर
मेरे घर के दाहिने एक वकील रहते हैं,जो खाने पीने में अच्छे हैं दोस्तों को भी खूब खिलाते हैं और सभा सोसाइटियों में भी भाग लेते हैं। बाल बच्चों से भरा पूरा परिवार नौकर भी सुख देने वाले और पत्नी भी अत्यन्त मृदुभाषिणि। भला एक सुखी मनुष्य को और क्या चाहिए। मगर वे सुखी नहीं हैं। उनके भीतर कौन.सा दाह हैइसे मैं भली-भांति जानता हूँ।  दरअहसल उनके बगल में जो वीमा एजेंट हैं उनके विभव की वृद्धि से वकील साहब का कलेजा जलता है। वकील साहब को जो भगवान ने जों कुछ देरखा हैवह उनके लिए काफी नहीं दिखता। वह इस चिन्ता में भुने जा रहे हैं कि काश एजेन्ट कि मोटर उनकी मासिक आय और उसकी तड़क-भड़क मेरी भी हुई होती।
ईष्या का यही अनोखा वरदान है। जिस हृदय में ईष्या घर बना लेती हैवह उन चीजों से आनन्द नहीं ले उठाता जो उसके पास मौजूद हैंबल्कि उन वस्तुओं से दुःख उठाता हैजो दूसरो के साथ करता है और इस तुलना में अपने पक्ष के सभी अभाव उसके हृदय पर दंश मारते रहते है। दंश के इस दाह को भोगना कोई अच्छी बात नहीं है। मगर ईर्ष्यालु मनुष्य करे भी तो क्या आदत से यह लाचार होकर उसे यह वेदना भोगनी पड़ती है।
एक उपवन को पाकर भगवान को धन्यवाद देते हुए उसका अनन्द नहीं लेना और बराबर इस चिंता में निमग्न रहना कि इससे भी बड़ा उपवन क्यों नहीं मिलाएक ऐसा दोष है। जिससे ईर्ष्यालु व्यक्ति का चरित्र भी भंयकर हो उठता है। अपने अभाव पर दिन रात सोचते वह सृष्टि की प्रक्रिया को भूलकर विनाश में लग जाता है। और अपनी उन्नति के लिए उद्यम करना छोड़कर वह  दूसरों को हानि पहुंचाने का ही अपना श्रेष्ठ कर्तव्य समझने लगता है।
ईर्ष्या की बड़ी बेटी का नाम निन्दा है। जो व्यक्ति ईर्ष्यालु होता है। वही बुरे किस्म का निन्दक भी होता है। दूसरों की निन्दा वह इसलिए करता है कि इस प्रकार दूसरे लोग जनता अथवा मित्रों की आखों से गिर जाए और जो स्थान रिक्त उस पर मैं अनायास ही बैठा दिया जाऊगा। 
मगर ऐसा न आज तक हुआ और न होगा। दूसरों को गिराने की कोशिश तो अपने बढ़ाने की कोशिश नहीं कही जा सकती। एक बात और है कि संसार में कोई भी मनुष्य निन्दा से नहीं गिरता। उसके पतन का कारण सद्गुणों का ह्रास होता है। इसी प्रकार कोई भी मनुष्य दुसरों की निन्दा करने से अपनी उन्नति नही कर सकता। उन्नति तो उसकी तभी होगी जब वह अपने चरित्र को निर्मल बनाए तथा गुणों का विकास करे।
ईर्ष्या का काम जलाना है मगर सबसे पहले वह उसी को जलाती है जिसके हृदय में उसका जन्म होता है। आप भी ऐंसे बहुत से लोगो को जानते होंगे जो  ईर्ष्या और द्वेष की साकार मृर्ति हैं और जो बराबर इस फिक्र में लगें रहते हैं कि कहां सुनने वाला मिले और अपने दिल का गुबार निकालने का मौका मिले। श्रोता मिलते ही उनका ग्राफोफोन बजने लगता हैंऔर वे बड़ी ही होशियारि के साथ एक-एक काण्ड इस ढंग से सुनाते रहे हैं मानें विश्व कल्याण को छोड़कर उनका और कोई ध्येय नहीं हो। अगर जरा इतिहास को देखिए और समझने का कोशिश किजिए कि जब से उन्होंने इस सुकर्म का आरम्भ किया है तब से वे अपने क्षेत्र में आगे बढे़ हैं या पीछे हटे हैं। यह भी कि वे निन्दा करने में समय और शक्ति का अपव्यय नहीं करते तो आज इनका स्थान कहां होता ?
चिन्ता को लोग चिता कहते है। जिसे किसी प्रचंड चिंता ने पकड़ लिया हैउस बेचारे की जिन्दगी ही खराब हो जाती है। ईर्ष्या शायद फिर चिन्ता से भी बदतर चीज है क्योंकि वह मनुष्य के मौलिक गुणों को ही कुंठित बना डालता है।
मृत्यु शायद फिर भी श्रेष्ठ हैं बनिस्बत इसके कि हमें अपने गुणों को ही कुंठित बना देता है। दग्ध व्यक्ति समाज की दया का पात्र हैं। किंतु ईर्ष्या से जला-भुना आदमी जहर की एक चलती-फिरती गठरी के समान है जो हर जगह वायु को दूषित करति फिरती है।
ईर्ष्या मनुष्य का चारित्रिक दोष ही नहीं हैप्रत्त्युत इससे मनुष्य के आनन्द में भी बाधा पडती है। जब भी मनुष्य के हृदय में ईर्ष्या का उदय होता हैसामने का सुख उसे मद्धिम सा दिखने लगता है। पक्षियों के गीत में जादू नहीं रह जाता और फूल तो ऐसे हो जाते हैंमानो वह देखने के योग्य ही न हों।
आप कहेंगे कि निन्दा के बाण से अपने प्रतिद्वन्द्वियों को बेधकर हंसने में एक आनन्द है और यह आनन्द ईर्ष्यालु व्यक्ति का सबसे बड़ा पुरस्कार है। मगर यह हंसी मनुष्य की नहीं राक्षस की हंसी हैयह आनन्द भी दैत्यों का आनन्द होता है।
ईर्ष्या का एक पक्ष सचमुच ही लाभदायक हो सकता है। जिसके आधीन हर जाति और हर दल अपने को अपने प्रतिद्वंद्वी का समकक्ष बनाना चाहता है। किन्तु यह तभी संभव है जबकि ईर्ष्या से जो प्रेरणा आती होवह रचनात्मक हो अक्सर तो ऐसा ही होता है कि ईर्ष्यालु व्यक्ति यह महसूस करता है कि कोई चीज है जो उसके भीतर नहीं है कोई वस्तु हैं,जो दूसरों के पास हैकिन्तु वह नहीं समझा पाता किस वस्तु को प्राप्त कैसे करना चाहिए और गुस्से में आकर वह अपने किसी पड़ोसीमित्र या समकालीन व्यक्ति को अपने से श्रेष्ठ मानकर उससे जलने लगता है जबकि ये लोग भी अपने अपने से सायद वैसे ही असन्तुष्ट हों।

अपने यही देखा होगा कि शरीफ लोग यह सोचते  हुए सिर खुजलाया करते हैं कि आदमी मुझे क्यों जलता है मैंनें तो उसका कुछ नहीं विगाड़ा और अमुक व्यक्ति इस निन्दा में क्यों लगा सच तो यह है कि मैंने सबसे अधिक भलाई उसीकी की है।
यह सोचते हैं तो मै पाक-साफ हूं मुझमें किसी भी व्यक्ति के लिए दुर्भावना नहीं हैबल्कि अपने दुश्मनों की भी मैं भलाई की सोचा करता हूँ ? फिर ये लोग मेरे पीछे क्यों पडे़ हुए हैंमुझमें कौन सा ऐब है जिसे दुर करके मैं इन दोस्तों को चुप कर सकता हूं 
ईश्वरचन्द्र विद्यासागर जब तजुरबे से होकर गुजरेतब उन्होंने एक सूत्र कहा- तुम्हारी निन्दा वही करेगा जिसकी तुमने भलाई की हैं।,,
और नीत्से जब इस कूचे से हो कर निकलता तब उसने जोरों का एक ठहाका लगाया और कहा कि ये तो बजार की मक्खियां हैजो अकारण हमारे चारों ओर भिनभिनाया करती हैं।,,
ये सामने प्रशंसा और पीठ पीछे निन्दा किया करते है। हम इनके दिमाग में बैठे हुए है। ये मक्खियां हमें भुल नहीं सकती और चूंकि ये हमारे बारे बहुत चर्चा करती है। इसलिए हमसे डरती हैंऔर हम पर शंका भी करती है। ये मक्खियां सजा देती हैं हमारे गुणों के लिएऐब को तो माफ कर देती हैक्योंकि बड़ो के लिए ऐब को माफ करने में भी शान है। जिस शान का स्वाद लेने के लिए मक्खियां तरस रहती हैं।
जिनका चरित्र उन्नत हैजिनका हृदय निर्मल और विशाल वे कहते हैंइन बेचारों के बात से क्या चिढ़ना ये तो खुद ही छोटे हैं।
जिनका दिल छोटा हैंऔर दृष्टि संकिर्ण हैवे मानते हैं कि जितनी भी बड़ी हस्तियां हैंउनकी निन्दा ही ठीक हैंऔर जब हम प्रीती उदारता और भलमनसाह का बरताव करते हैं तब भी वे यही समझते है। कि हम उनसे घृणा कर रहे हैऔर हम चाहे जिनका जितना उपकार करें बदले म हमे अपकार ही मिलेगा।
दरअहसल हम जो उनकी निन्दा का जवाब न देकर चुप्पी साधे रहते हैं उसे भी ये हमारा अंकार समझते है। खुशी तो उन्हें तभी हो सकती हैजब हम उनके धरातल पर उतर कर छोटेपन के भागीदार बन जाएं।
सारे अनुभवों को निचोड़कर नीत्से ने एक दूसरा सूत्र कहा-  आदमी में जो गुण महान समझे जाते हैंउन्हीं के चलते,लोग उससे जलते है।
तो ईर्ष्यालु लोगों से बचने का क्या उपाय है नीत्से ने कहा है कि बाजार की मक्खियों को छोड़कर एकांत की ओर भागो। जो कुछा भी अमर तथा महान हैउनकी रचना और निर्माण बाजार के तथा सुयश से दूर रहकर किया जाता है। जो लोग नए मूल्यों का निमार्ण करने वाले हैं,वे बाजारों में नहीं बसतेवें शोहरत के पास भी नहीं रहते,, जहां बाजार की मक्खियां भी नहीं भनकती वहां एकान्त है।
यह तो हुआ ईर्ष्यालु लोगो  से बचने का उपाय किन्तु ईर्ष्या से आदमी कैसे सकता है ?
 ईर्ष्या से बचने का उपाय मानसिक अनुशासन है। जो व्यक्ति ईर्ष्यालु स्वभाव का है उसे फालतू बातों के बारे में साचने की आदत छोड़ देनी चाहिए। उसे यह भी पता लगाना चाहिए कि जिस अभाव के कारण वह ईर्ष्यालु बन गया हैउसकी पुर्ति का रचनात्मक तरीका क्या हैजिस दिन उसके भीतर यह जिज्ञासा आएगीउसी दिन से वह ईर्ष्या करना कम कर देगा। 
 प्रस्तुति: शंकर वर्मा। गुरुवार, 13.1. जनवरी 2011