- रामधारी सिंह दिनकर
मेरे घर के दाहिने एक वकील रहते हैं,जो खाने पीने में अच्छे हैं दोस्तों को भी खूब खिलाते हैं और सभा सोसाइटियों में भी भाग लेते हैं। बाल बच्चों से भरा पूरा परिवार नौकर भी सुख देने वाले और पत्नी भी अत्यन्त मृदुभाषिणि। भला एक सुखी मनुष्य को और क्या चाहिए। मगर वे सुखी नहीं हैं। उनके भीतर कौन.सा दाह है, इसे मैं भली-भांति जानता हूँ। दरअहसल उनके बगल में जो वीमा एजेंट हैं उनके विभव की वृद्धि से वकील साहब का कलेजा जलता है। वकील साहब को जो भगवान ने जों कुछ देरखा है, वह उनके लिए काफी नहीं दिखता। वह इस चिन्ता में भुने जा रहे हैं कि काश एजेन्ट कि मोटर उनकी मासिक आय और उसकी तड़क-भड़क मेरी भी हुई होती।
ईष्या का यही अनोखा वरदान है। जिस हृदय में ईष्या घर बना लेती है, वह उन चीजों से आनन्द नहीं ले उठाता जो उसके पास मौजूद हैं, बल्कि उन वस्तुओं से दुःख उठाता है, जो दूसरो के साथ करता है और इस तुलना में अपने पक्ष के सभी अभाव उसके हृदय पर दंश मारते रहते है। दंश के इस दाह को भोगना कोई अच्छी बात नहीं है। मगर ईर्ष्यालु मनुष्य करे भी तो क्या ? आदत से यह लाचार होकर उसे यह वेदना भोगनी पड़ती है।
एक उपवन को पाकर भगवान को धन्यवाद देते हुए उसका अनन्द नहीं लेना और बराबर इस चिंता में निमग्न रहना कि इससे भी बड़ा उपवन क्यों नहीं मिला, एक ऐसा दोष है। जिससे ईर्ष्यालु व्यक्ति का चरित्र भी भंयकर हो उठता है। अपने अभाव पर दिन रात सोचते वह सृष्टि की प्रक्रिया को भूलकर विनाश में लग जाता है। और अपनी उन्नति के लिए उद्यम करना छोड़कर वह दूसरों को हानि पहुंचाने का ही अपना श्रेष्ठ कर्तव्य समझने लगता है।
ईर्ष्या की बड़ी बेटी का नाम निन्दा है। जो व्यक्ति ईर्ष्यालु होता है। वही बुरे किस्म का निन्दक भी होता है। दूसरों की निन्दा वह इसलिए करता है कि इस प्रकार दूसरे लोग जनता अथवा मित्रों की आखों से गिर जाए और जो स्थान रिक्त उस पर मैं अनायास ही बैठा दिया जाऊगा।
मगर ऐसा न आज तक हुआ और न होगा। दूसरों को गिराने की कोशिश तो अपने बढ़ाने की कोशिश नहीं कही जा सकती। एक बात और है कि संसार में कोई भी मनुष्य निन्दा से नहीं गिरता। उसके पतन का कारण सद्गुणों का ह्रास होता है। इसी प्रकार कोई भी मनुष्य दुसरों की निन्दा करने से अपनी उन्नति नही कर सकता। उन्नति तो उसकी तभी होगी जब वह अपने चरित्र को निर्मल बनाए तथा गुणों का विकास करे।
ईर्ष्या का काम जलाना है मगर सबसे पहले वह उसी को जलाती है जिसके हृदय में उसका जन्म होता है। आप भी ऐंसे बहुत से लोगो को जानते होंगे जो ईर्ष्या और द्वेष की साकार मृर्ति हैं और जो बराबर इस फिक्र में लगें रहते हैं कि कहां सुनने वाला मिले और अपने दिल का गुबार निकालने का मौका मिले। श्रोता मिलते ही उनका ग्राफोफोन बजने लगता हैं, और वे बड़ी ही होशियारि के साथ एक-एक काण्ड इस ढंग से सुनाते रहे हैं मानें विश्व कल्याण को छोड़कर उनका और कोई ध्येय नहीं हो। अगर जरा इतिहास को देखिए और समझने का कोशिश किजिए कि जब से उन्होंने इस सुकर्म का आरम्भ किया है तब से वे अपने क्षेत्र में आगे बढे़ हैं या पीछे हटे हैं। यह भी कि वे निन्दा करने में समय और शक्ति का अपव्यय नहीं करते तो आज इनका स्थान कहां होता ?
चिन्ता को लोग चिता कहते है। जिसे किसी प्रचंड चिंता ने पकड़ लिया है, उस बेचारे की जिन्दगी ही खराब हो जाती है। ईर्ष्या शायद फिर चिन्ता से भी बदतर चीज है क्योंकि वह मनुष्य के मौलिक गुणों को ही कुंठित बना डालता है।
मृत्यु शायद फिर भी श्रेष्ठ हैं बनिस्बत इसके कि हमें अपने गुणों को ही कुंठित बना देता है। दग्ध व्यक्ति समाज की दया का पात्र हैं। किंतु ईर्ष्या से जला-भुना आदमी जहर की एक चलती-फिरती गठरी के समान है जो हर जगह वायु को दूषित करति फिरती है।
ईर्ष्या मनुष्य का चारित्रिक दोष ही नहीं है, प्रत्त्युत इससे मनुष्य के आनन्द में भी बाधा पडती है। जब भी मनुष्य के हृदय में ईर्ष्या का उदय होता है, सामने का सुख उसे मद्धिम सा दिखने लगता है। पक्षियों के गीत में जादू नहीं रह जाता और फूल तो ऐसे हो जाते हैं, मानो वह देखने के योग्य ही न हों।
आप कहेंगे कि निन्दा के बाण से अपने प्रतिद्वन्द्वियों को बेधकर हंसने में एक आनन्द है और यह आनन्द ईर्ष्यालु व्यक्ति का सबसे बड़ा पुरस्कार है। मगर यह हंसी मनुष्य की नहीं राक्षस की हंसी है, यह आनन्द भी दैत्यों का आनन्द होता है।
ईर्ष्या का एक पक्ष सचमुच ही लाभदायक हो सकता है। जिसके आधीन हर जाति और हर दल अपने को अपने प्रतिद्वंद्वी का समकक्ष बनाना चाहता है। किन्तु यह तभी संभव है जबकि ईर्ष्या से जो प्रेरणा आती हो, वह रचनात्मक हो अक्सर तो ऐसा ही होता है कि ईर्ष्यालु व्यक्ति यह महसूस करता है कि कोई चीज है जो उसके भीतर नहीं है कोई वस्तु हैं,जो दूसरों के पास है, किन्तु वह नहीं समझा पाता किस वस्तु को प्राप्त कैसे करना चाहिए और गुस्से में आकर वह अपने किसी पड़ोसी, मित्र या समकालीन व्यक्ति को अपने से श्रेष्ठ मानकर उससे जलने लगता है जबकि ये लोग भी अपने अपने से सायद वैसे ही असन्तुष्ट हों।
अपने यही देखा होगा कि शरीफ लोग यह सोचते हुए सिर खुजलाया करते हैं कि आदमी मुझे क्यों जलता है मैंनें तो उसका कुछ नहीं विगाड़ा और अमुक व्यक्ति इस निन्दा में क्यों लगा ? सच तो यह है कि मैंने सबसे अधिक भलाई उसीकी की है।
यह सोचते हैं तो मै पाक-साफ हूं मुझमें किसी भी व्यक्ति के लिए दुर्भावना नहीं है, बल्कि अपने दुश्मनों की भी मैं भलाई की सोचा करता हूँ ? फिर ये लोग मेरे पीछे क्यों पडे़ हुए हैं? मुझमें कौन सा ऐब है जिसे दुर करके मैं इन दोस्तों को चुप कर सकता हूं ?
ईश्वरचन्द्र विद्यासागर जब तजुरबे से होकर गुजरे, तब उन्होंने एक सूत्र कहा- तुम्हारी निन्दा वही करेगा जिसकी तुमने भलाई की हैं।,,
और नीत्से जब इस कूचे से हो कर निकलता तब उसने जोरों का एक ठहाका लगाया और कहा कि ये तो बजार की मक्खियां है, जो अकारण हमारे चारों ओर भिनभिनाया करती हैं।,,
ये सामने प्रशंसा और पीठ पीछे निन्दा किया करते है। हम इनके दिमाग में बैठे हुए है। ये मक्खियां हमें भुल नहीं सकती और चूंकि ये हमारे बारे बहुत चर्चा करती है। इसलिए हमसे डरती हैं, और हम पर शंका भी करती है। ये मक्खियां सजा देती हैं हमारे गुणों के लिए, ऐब को तो माफ कर देती है, क्योंकि बड़ो के लिए ऐब को माफ करने में भी शान है। जिस शान का स्वाद लेने के लिए मक्खियां तरस रहती हैं।
जिनका चरित्र उन्नत है, जिनका हृदय निर्मल और विशाल वे कहते हैं, इन बेचारों के बात से क्या चिढ़ना ? ये तो खुद ही छोटे हैं।
जिनका दिल छोटा हैं, और दृष्टि संकिर्ण है, वे मानते हैं कि जितनी भी बड़ी हस्तियां हैं, उनकी निन्दा ही ठीक हैं, और जब हम प्रीती उदारता और भलमनसाह का बरताव करते हैं तब भी वे यही समझते है। कि हम उनसे घृणा कर रहे है, और हम चाहे जिनका जितना उपकार करें बदले म हमे अपकार ही मिलेगा।
दरअहसल हम जो उनकी निन्दा का जवाब न देकर चुप्पी साधे रहते हैं , उसे भी ये हमारा अंकार समझते है। खुशी तो उन्हें तभी हो सकती है, जब हम उनके धरातल पर उतर कर छोटेपन के भागीदार बन जाएं।
सारे अनुभवों को निचोड़कर नीत्से ने एक दूसरा सूत्र कहा- आदमी में जो गुण महान समझे जाते हैं, उन्हीं के चलते,लोग उससे जलते है।
तो ईर्ष्यालु लोगों से बचने का क्या उपाय है ? नीत्से ने कहा है कि बाजार की मक्खियों को छोड़कर एकांत की ओर भागो। जो कुछा भी अमर तथा महान है, उनकी रचना और निर्माण बाजार के तथा सुयश से दूर रहकर किया जाता है। जो लोग नए मूल्यों का निमार्ण करने वाले हैं,वे बाजारों में नहीं बसते, वें शोहरत के पास भी नहीं रहते,, जहां बाजार की मक्खियां भी नहीं भनकती वहां एकान्त है।
यह तो हुआ ईर्ष्यालु लोगो से बचने का उपाय किन्तु ईर्ष्या से आदमी कैसे सकता है ?
ईर्ष्या से बचने का उपाय मानसिक अनुशासन है। जो व्यक्ति ईर्ष्यालु स्वभाव का है उसे फालतू बातों के बारे में साचने की आदत छोड़ देनी चाहिए। उसे यह भी पता लगाना चाहिए कि जिस अभाव के कारण वह ईर्ष्यालु बन गया है, उसकी पुर्ति का रचनात्मक तरीका क्या है? जिस दिन उसके भीतर यह जिज्ञासा आएगी, उसी दिन से वह ईर्ष्या करना कम कर देगा।
प्रस्तुति: शंकर वर्मा। गुरुवार, 13.1. जनवरी 2011
प्रस्तुति: शंकर वर्मा। गुरुवार, 13.1. जनवरी 2011
Writer ka naam to shi dalo...this is of Harishankar Parsai...not dinkar
ReplyDeleteYe ramdhari Singh dinkar ki hi rachna hai
DeleteAbhishek sir...
DeleteEkk rachana hai..'Ninda Ras' isko likha hai. Harishankar parsai ne...ho Sakta hai...iss Karan apko doubt ho Gaya ho
yah its o dhinkar
DeleteThis comment has been removed by the author.
DeleteYe dinkar ji ka hi h aap galat hi
DeleteHigh school fail h vo jane do use....
DeleteBhai ye dinkar ji ki hi hai shayad aap kabhi school Ni gaye
DeleteSahi Ko Galat Kahne Sahi Galat Nahi HOTA
DeleteBhai Ji Ye Dinkar Ji Ki Hai ab Aap Ki Marji
Bahut thik likha hai
ReplyDeleteSahi hi likha he ramdhani singh dinkar hi he
ReplyDeleteJai ho
ReplyDelete1991/2 में पढ़ा था, याद ताजा हो गई।
ReplyDelete1991/2 में पढ़ा था, याद ताजा हो गई।
ReplyDeleteKb se search kr rhi thi y essay....pdke mn shant ho gya. ...thnku
ReplyDeleteKb se search kr rhi thi y essay....pdke mn shant ho gya. ...thnku
ReplyDeleteKb se search kr rhi thi y essay....pdke mn shant ho gya. ...thnku
ReplyDeleteGreatlion
ReplyDeleteGreatlion
ReplyDeleteYe bakai badiya lakh hai aaj kal aesa lekh nahi milta hai
ReplyDeleteराइट है भाई
ReplyDeletethank you
DeleteHELP guys!can u translate thr 6th paragraph for me please.. i tried google translate but the grammar wasn't good enough to understand well
ReplyDeleteThanks Dinkar saab 🙏🙏
ReplyDeleteThanks Dinkar saab 🙏🙏
ReplyDeleteलेखक का नाम रामबृक्ष बेनीपुरी है
ReplyDeleteGalat hai aap
Deleteरामधारी सिंह दिनकर kon fir aap hamme batayiye
DeleteWa sir matlab aap hamare guru ke saman ho
ReplyDeleteVo ramdhari singh 'dinkar' hai
ReplyDeleteIs rachna ke writer ka doubt clear ho gaya
ReplyDeleteAchha Lekha ha
ReplyDeletethank you ... & welcome
DeleteJioooo
ReplyDeleteI m very happy
ReplyDeleteThank u boss
ReplyDeleteYad taja ho gyi
Thank u boss
ReplyDeleteYad taja ho gyi
welcome.....
Deleteधन्यवाद एक दम सही अच्छा पाठ है. कक्षा दस का पाठ है. रामधारी सिहं जी का . शुक्रिया जी
ReplyDeletegood job
ReplyDeleteNindA Ras aur irshyA mein confuse thi,clear ho gya
ReplyDeletethank you
Deleteधन्यवाद
ReplyDeleteमनुष्य का स्वभाव
ReplyDeleteजो मिला है उसी में सब्र कीजिए
ReplyDeleteBest poet ramdhariSingh dinkar ji
ReplyDeleteVery nice thanks
ReplyDeleteअदभुत लेख
ReplyDeleteYe kahani se mera Man halka ho gaya
ReplyDeleteMere bade bhai hemu bhai thanks