Tuesday, October 26, 2010

गोस्वामी तुलसीदास का लोकनायकत्व


गोस्वामी तुलसीदास का लोकनायकत्व


लोक का अर्थ है- हमारे चारों ओर फैला हुआ विश्व, जिसे हम अनुभूतियों द्वारा ग्रहण करते हैं, जिनमें मानव के आचार, विचार, संस्कार भी समाविष्ट हैं। जो व्यक्ति समूह में परिवर्तन लाता है, समूह के कार्य पर जिसका निर्विवाद प्रभाव होता है, जिसके प्रभाव से समूह का मनोबल और सम्पूर्ण समूह में शक्ति स्थिर रहती है, जो व्यक्ति समूह की वृत्तियों में परिवर्तन लाता है, वह व्यक्ति नेता है। समूह को उनके उद्देश्यों की ओर ले जाने वाला, उत्कर्षगामी, उत्कर्ष की दृष्टि से मार्गदर्शन करने वाला, पथ बाधाओं का निवारण करने वाला और समूह के द्वारा योग्य कार्य की पूर्ति करने वाला मनुष्य नेता है। नेता श्रेष्ठ श्रेणी का व्यक्ति है।


डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार लोक शब्द का अर्थ 'जनपद या ग्राम' नहीं है, बल्कि नगरों और गाँवों में फैली हुई वह समूची जनता है, जिनके व्यवहारिक ज्ञान का आधार पोथियां नहीं है। ये लोग नगर में परिष्कृत, रूचि सम्पन्न तथा सुसंस्कृत समझे जाने की अपेक्षा अधिक सरल और अकृत्रिम जीवन के अभ्यस्त होते हैं और परिष्कृत रूचिवाले लोगों की समस्त विलासिता और सुकुमारता को जीवित रखने के लिए जो भी वस्तुएं आवश्यक होती हैं, उनको उत्पन्न करते हैं।


जब कभी समाज विश्रृंखलित होता है तो समाज की गति अवरूद्ध हो जाती है। साथ ही समाज में अन्याय, अत्याचार का प्रादुर्भाव होता है और एक निर्णायक अवस्था का निर्माण होता है तब लोकनेता का निर्माण होता है। लोकनायक समस्त विरोधी तत्वों तथा गतिरोधों के कारणों का परिष्कार कर समाज में सहयोग और एकत की भावना उत्पन्न करता है और इसे उद्देश्यपूर्ति की दिशा में अग्रसर करता है। लोकनायक अतिवादी दृष्टिकोण का परित्याग कर, लोक के हित में एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण को स्वीकार करता है, लोक के समक्ष उसका प्रतिपादन करता है, लोक को उस दिशा में आगे बढ़ा कर ले जाता है।


लोकनायक समूह अथवा झुण्ड से अलग व्यक्ति होता है, समूह में रहते हुए भी वह समूह से अपने को ऊपर उठाने में सक्षम होता है। उसके पास ऐसी आंखें होती हैं जो निराशापूर्ण वर्तमान पर उज्जवल भविष्य को देखने की क्षमता रखती हैं। लोकनायक में वह क्षमता अपेक्षित है कि वह सोये को जगा दे, मुर्दे के जिन्दा कर, मिट्टी को सोना बना दे और इतना होने पर भी वह उससे तटस्थ रहे। उसका व्यक्तित्व प्रेरणादायी होता है। वह केवल लोगों को आह्वान कर उन्हें उद्दीप्त नहीं करता बल्कि उनका साथी बन जाता है। अपने आचरण द्वारा एक आदर्श प्रस्तुत करते हुए लोक-जीवन के विभिन्न अंगों जैसे- सांस्कृतिक, सामाजिक, धार्मिक, साहित्यिक एवं नैतिक जीवन को सुव्यवस्थित बनाने हेतु मौलिक चिन्तन और समन्वित मार्ग प्रस्तुत करते हुए लोक-जीवन को संगठित करता है।


तुलसीदास के लोकनायकत्व का विचार करते हुए यह अनुभव होता है कि समाज, धर्म, साहित्य, जीवन-दर्शन आदि के क्षेत्रों में उन्होंने अपने लोकनायकत्व को प्रमाणित किया है। वह अपने समय के सर्वाधिक क्रन्तिकारी और प्रगतिशील लोकनायक थे। उन्होंने उत्तर-दक्षिण के समाज को एकता के सूत्र में बांधा है और 'बहुजन-हिताय' की अपेक्षा 'सर्वजन हिताय' की कामना की है।




मानव-मूल्यों के आधार पर मानव समाज प्रतिष्ठित होता है। दूसरों का पीर, युग की पीड़ा, संघर्ष की विसंगतियों, भोगे गये यथार्थ के सत्य रूप को साकार करने वाले तुलसी ने कहा है

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