Thursday, October 28, 2010

रामलला की है रामजन्मभूमि

रामलला की है रामजन्मभूमि
संजय तिवारी
ऐतिहासिक फैसला गया। शांति की अलोकप्रिय और अप्रासंगिक अपीलों और फैसला रुकवाने की इक्का दुक्का कोशिशों के बीच आखिरकार आज उस ऐतिहासिक विवाद में अदालत की मध्यम पायदान ने अपना फैसला सुना दिया जिसे सुनने के लिए साढ़े तीन बजे लगभग सारा देश ठहर गया था। नौ हजार पृष्ठों में पसरे फैसले की एक एक लाइन -"जहां रामलला विराजमान, वही जन्मस्थान।"
यहां अदालत द्वारा जिस जन्मस्थान का जिक्र किया गया है उससे आशय रामजन्मभूमि से है जहां अभी अस्थाई रूप से मंदिर है. इसी विवादित स्थल पर ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच ने दो-एक के बहुमत से इस बात पर अपनी मुहर लगा दी कि जहां रामलला विराजमान हैं वहां विराजमान रहेंगे. जस्टिस अग्रवाल, जस्टिस धर्मवीर शर्मा और जस्टिस एस यू खान की खण्डपीठ ने ऐतिहासिक फैसला देते हुए देश को उस मझधार से पार कर दिया है जहां चार सदियों से कमोबेश यह देश अटका हुआ था। लेकिन फैसला एकदम से एकतरफा भी नहीं है।
अपने दस हजार पेज के फैसले में उच्च न्यायालय ने संपूर्ण फैसला क्या दिया है लेकिन शाम के पांच बजे इस मुद्दे पर जिरह कर रहे वकीलों ने फैसले की जो जानकारी दी उसका सार यही है कि जन्मस्थान रामलला का है लेकिन सरकार द्वारा अधिग्रहित जमीन को तीन हिस्से में बांट दिया जाए जिसमें से एक हिस्से पर मंदिर निर्माण हो, दूसरा हिस्सा मुसलमानों को दिया जाए और तीसरा हिस्सा निर्मोही अखाड़े को दिया जाए. 2002 से शुरू हुई अदालती कार्यवाही में कुल 90 दिन सुनवाई हुई जिसमें चार प्रमुख मुकदमों में दलीलें पेश की गयी. ये चार वाद थे- भगवान श्रीराम विराजमान बनाम राजेन्द्र सिंह, गोपाल सिंह विशारद बनाम जहूर अहमद, निर्मोही अखाड़ा बनाम बाबू प्रियदत्त राम अन्य और सुन्नी सेन्ट्रल वक्फ बोर्ड बनाम गोपाल विसारद अन्य. इनमें से चौथे वाद को हाईकोर्ट ने खारिज कर दिया जो सुन्नी वक्फ बोर्ड बनाम गोपाल सिंह विशारद का था. फैसला बाकी तीन के संदर्भ में आया है. इन तीन वादों में भी मुख्य फैसला भगवान श्रीरामचंद्र विराजमान बनाम राजेन्द्र सिंह से जुड़ा है जिसके संदर्भ में उच्च न्यायालय ने कहा है कि रामलला जहां विराजमान हैं, वह उन्हीं का स्थान है।
पहले वाद के तहत जो मुख्य सवाल सामने रखे गये थे उसमें अदालत को यह निर्णय करना था कि क्या विवादित स्थल आस्था, विश्वास या परम्परा के अनुसार भगवान राम का जन्मस्थान है? यदि हां, तो इसका प्रभाव? महत्वपूर्ण फैसला इसी एक बिंदु पर आया है. हाइकोर्ट ने आस्था, विश्वास और परंपरा तथा ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर पाया है कि जिस स्थान को लेकर विवाद है और जहां बाबरी मस्जिद निर्मित की गयी थी वह वास्तव में हिन्दुओं के पुरुषार्थ पुरुष रामचंद्र से ताल्लुक रखती है जो धर्मग्रंथों और साक्ष्यों के अनुसार अयोध्या में ही पैदा हुए थे. अदालत के इस फैसले से वाद संख्या तीन में उठाये गये सवाल का भी जवाब मिल जाता है जिसमें इस बात पर निर्णय करना था कि क्या विवादित संपत्ति मस्जिद है, जिसे बाबर द्वारा बनवाये जाने पर बाबरी मस्जिद कहा जाता है? जाहिर है अदालत ने माना है कि इस विवादित संपत्ति को वर्तमान में मस्जिद नहीं माना जा सकता क्योंकि इसे बाबर ने ही मुसलमानों को वक्फ किया था, इसका कोई साक्ष्य सामने आया नहीं है. संभवत: इसी आधार पर हाईकोर्ट ने सुन्नी सेन्ट्रल वक्फ बोर्ड का दावा ही खारिज कर दिया. क्योंकि सुन्नी वक्फ बोर्ड ने बतौर वादी जो दावे किये थे वे बहुत ही कमजोर थे और इस ऐतिहासिक विवाद में एक तरह से बचकाने दावे किये थे।

सुन्नी वक्फ बोर्ड को पंद्रह प्रमुख बिन्दुओं पर हाईकोर्ट के सामने अपना पक्ष रखना था जिसमें कई कमजोर कड़ियां हैं. सुन्नी वक्फ बोर्ड को यह साबित करना था कि क्या 1949 तक वह विवादित भवन के कब्जे में रहा जहां से उसे बेदखल कर दिया गया? अगर बाबरी मस्जिद का वक्फ नहीं हुआ था तो सुन्नी वक्फ बोर्ड किस आधार पर यह दावा कर सकता है कि संपत्ति उसकी है? फिर वह इस बात को भी नकार नहीं सकता था कि विवादित स्थल पर हिन्दू एक जमाने से पूजा अर्चना करते रहे हैं. अगर 23 दिसंबर 1949 को विवादित परिसर में रामलला की मूर्ति और पूजा का सामान रख दिया गया था तो फिर उस भवन को मस्जिद कहने का क्या औचित्य बचता था? एक और महत्वपूर्ण बिन्दु पर सेन्ट्रल सुन्नी वक्फ बोर्ड को अपना पक्ष प्रस्तुत करना था वह यह कि क्या विवादित ढांचे में लगे खम्भों, जिन पर हिन्दू देवी देवताओं के चित्र अंकित हैं, के कारण विवादित भवन को मस्जिद की संज्ञा दी जा सकती है? और आखिरी बात यह कि जब वहां कोई ढांचा ही नहीं है तो उसे बाबरी मस्जिद कैसे कहा जा सकता है? भावनात्मक रूप से वक्फ बोर्ड ने चाहे जो दलीलें दी हों लेकिन कानून और शरीयत के दायरे में इन पेचींदे सवालों का संभवत: उनके पास कोई उत्तर नहीं रहा होगा।

बहरहाल, लंबी कानूनी लड़ाई, घृणित राजनीति और दुखदायी सांप्रदायिक दुर्घटनाओं से गुजरते हुए अयोध्या के विवादित परिसर पर हाईकोर्ट का फैसला दोनों पक्षों के लिए संतोषजनक ही दिखाई दे रहा है. राममंदिर आंदोलन में हिन्दुओं की ओर से प्रतिनिधि संगठन होने का दावा करनेवाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भी इसका स्वागत किया है तो शिवसेना भी फैसले पर संतोष जाहिर किया है. अन्य मुस्लिम समुदाय से जुड़े लोगों ने अभी तक तो कोई खास प्रतिक्रिया नहीं दी है लेकिन सेन्ट्रल सुन्नी वक्फ बोर्ड के जफरयाब जिलानी ने कहा है कि वे सुप्रीम कोर्ट जाएंगे. हाईकोर्ट ने खुद कहा है कि तीन महीने के भीतर इनमें से कोई भी पक्ष सर्वोच्च न्यायालय जा सकता है. ऐसे में जिलानी कोई असहज बात नहीं कर रहे हैं. लेकिन सवाल अब यह है कि दोनों में से कोई भी पक्ष सर्वोच्च न्यायालय क्यों जाएगा? अगर विवादित परिसर में एक हिस्सा मुस्लिम समुदाय को दे दिया गया है तो क्या हिन्दू समुदाय आगे आकर इसे स्वीकार नहीं कर सकता? या फिर रामलला के जन्मस्थान को अगर न्यायालय ने स्वीकार कर लिया है तो क्या मुस्लिम समाज के प्रतिनिधि इस फैसले को लागू करवाने के लिए आगे नहीं सकते? लेकिन ऐसा शायद ही हो. क्योंकि हिन्दुओं की राजनीति करनेवाले जिस धड़े को इसका लाभ नहीं मिला वे भी लड़ाई जारी रखने की बात करेंगे और वे भी जो मुस्लिम जमात की राजनीति का शौक रखते होंगे. अगर ये दोनों धड़े असफल हो गये तो मानिएगा कि फैसला हो गया, नहीं तो देश को एक और लंबी कानूनी लड़ाई के लिए तैयार रहना होगा।

((साभार: www.visfot.com, 30/09/2010)

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