Friday, October 29, 2010

श्रीराम जन्मभूमि विवाद का इतिहास


श्रीराम जन्मभूमि विवाद का इतिहास
न्यायालय में पिछले छह दशकों से इस बात का मुकदमा चल रहा है कि अयोध्या में हिन्दू मान्यता के अनुसार श्रीराम जन्मस्थान पर मालिकाना हक किसका है। हिन्दू इसे अनादि काल से अपने आस्था के केन्द्र के रूप में मानता आया है, वहीं उस स्थान पर बने ढ़ांचे पर लगे शिलालेख के अनुसार वह इमारत बाबरी मस्जिद थी जिसे बाबर के सेनापति मीरबाकी ने बनवाया।


जानकारी हो कि भारत में वर्तमान न्याय व्यवस्था कायम होने के साथ ही यह विवाद किसी न किसी रूप में न्ययालय के समक्ष बना रहा किन्तु इस पर अंतिम निर्णय न हो सका। स्वतंत्र भारत में भी यह संभवतः सबसे लंबा चलने वाला मुकदमा बन चुका है जो साठ साल में भी निर्णायक स्थिति में नहीं पहुंचा। साहित्य की भाषा में कहें तो इस मुकदमे ने भारत के संविधान को अपने सामने पैदा होते देखा है।


वर्ष 1949 से जारी इस मुकदमें में तमाम दावे पेश किए गए, तमाम जिरह हुई। अपने दावे के पक्ष में हिंदुओं ने 54 और मुस्लिम पक्ष ने 34 गवाह पेश किए। इनमें धार्मिक विद्वान, इतिहासकार और पुरातत्व के जानकार शामिल हैं।
इस मामले में न्यायालय को मुख्यरूप से चार बिन्दुओं को संज्ञान में लेकर अपना निर्णय सुनाना है। पहला विवादित धर्मस्थल पर मालिकाना हक किसका है। दूसरा श्रीराम जन्मभूमि वहीं है या नहीं। तीसरा क्या 1528 में मन्दिर तोड़कर बाबरी मस्जिद बनी थी और चौथा यदि ऐसा है तो यह इस्लाम की परम्पराओं के खिलाफ है या नहीं।


वैसे तो सम्पूर्ण अयोध्या मन्दिरों की ही नगरी है, सभी मन्दिर भगवान राम की जीवनलीलाओं से जुड़े हुए हैं। लगभग 130 फीट लम्बा तथा 90 फीट चौड़ा चारदीवारी से घिरा एक स्थान जिसके भीतरी आंगन में तीन गुम्बदों वाला एक ढांचा था, जो दूर से देखने पर मस्जिद जैसा लगता था। मुस्लिम समाज इसी ढांचे को बाबरी मस्जिद कहता आ रहा है, इसके विपरीत हिन्दू समाज इस सम्पूर्ण परिसर को भगवान राम की जन्मभूमि मानता है।


हिन्दू मानता था कि यहाँ कभी एक बड़ा मन्दिर था, जिसे 1528 ई. में मुस्लिम आक्रमणकारी बाबर के आदेश से उसके सेनापति मीरबाकी ने तोड़ा और ढांचे का निर्माण कराया। तब से लेकर आज तक इस भीतरी आंगन वाले परिसर को प्राप्त करने के लिए हिन्दू निरन्तर संघर्षरत रहा है।

नव-स्वतंत्र भारत में अयोध्या विवाद पर एक दृष्टि…
22-23 दिसंबर, 1949 की मध्यरात्रि अयोध्या में शोर मच गया कि जन्मभूमि में भगवान रामलला प्रकट हो गए हैं।
29 दिसम्बर, 1949 को सिटी मजिस्ट्रेट ने दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 145 के अन्तर्गत ढांचे के भीतरी परिसर को कुर्क करके अयोध्या नगर पालिका के अध्यक्ष बाबू प्रियदत्तराम को उसके अन्दर चल रही पूजा अर्चना के संचालन के लिए रिसीवर नियुक्त कर दिया और रिसीवर का कर्तव्य निर्धारित किया गया कि वे ढांचे के मध्य गुम्बद के नीचे विराजित भगवान श्रीरामलला के विग्रहों की पूजा व भोग की व्यवस्था करेंगे। मुख्य बड़े द्वार को सींखचों से बन्द करके ताला डाल दिया गया।

16 जनवरी, 1950 को गोपाल सिंह विशारद ने फैजाबाद की जिला अदालत में रामलला की पूजा अर्चना विधिवत चलने के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाया। फैजाबाद के तत्कालीन अपर जिला न्यायाधीश एन.एन. चन्द्रा ने इसकी इजाजत दे दी। इसके साथ ही न्यायालय ने वहां रिसीवर भी नियुक्त कर दिया।

वर्ष 1959 में निर्मोही अखाडे़ ने रिसीवर की व्यवस्था समाप्त कर विवादित स्थल को उसे सौंपने के लिए फैजाबाद की ही जिला अदालत में मुकदमा किया।

वर्ष 1961 में सुन्नी सेन्ट्रल वक्फ बोर्ड और मोहम्मद हाशिम अंसारी समेत आठ अन्य मुस्लिमों ने विवादित धर्मस्थल को मस्जिद घोषित करने और रामलला की मूर्ति हटाने के लिए वाद दायर किया।

वर्ष 1989 में देवकी नन्दन अग्रवाल भी इस मामले से जुड़ गये और उन्होंने विवादित धर्मस्थल को रामलला विराजमान की सम्पत्ति घोषित करने की याचिका उच्च न्यायालय की लखनऊ खंडपीठ में दाखिल की।

मामले के शीघ्र निपटारे के लिए केन्द्र सरकार की पहल पर राज्य के महाधिवक्ता ने उच्च न्यायालय में एक याचिका दायर की। उच्च न्यायालय की लखनऊ खंडपीठ ने अपने आदेश दिनांक 10 जुलाई, 1989 के द्वारा प्रथम चार मुकदमें मौलिक व सामूहिक सुनवाई के लिए उच्च न्यायालय में स्थानान्तरित करा लिए।

इस मामले में सबसे पहली गवाही मोहम्मद अंसारी की 197 पृष्ठ की हुई। अंसारी की गवाही 24 जुलाई से शुरु होकर उसी साल 29 अगस्त 1996 तक चली।
वक्फ बोर्ड की तरफ से सर्वाधिक 288 पृष्ठ की गवाही सुरेश चन्द्र मिश्र की रही जबकि सबसे कम 64 पृष्ठ में रामशंकर उपाध्याय ने अपना बयान दर्ज कराया। कानूनी दांवपेचों में उलझे इस मामले में 06 दिसम्बर 1992 को बड़ा मोड़ आया और विवादित ढांचा ध्वस्त कर दिया गया। ढांचा ध्वस्त होने के बाद केन्द्र सरकार ने सात जनवरी 1993 को 67 एकड़ से अधिक जमीन का अधिग्रहण कर लिया।

अधिग्रहण के इस अधिनियम के खिलाफ सुन्नी वक्फ बोर्ड, अक्षय ब्रह्मचारी, हाफिज महमूद एखलाख और जामियातुल उलेमा ए हिन्द ने उच्च न्यायालय में याचिका दायर की। उच्च न्यायालय ने सभी याचिकाओं को उच्चतम न्यायालय में भेज दिया।

24 अक्टूबर, 1994 को उच्चतम न्यायालय ने अयोध्या मामले से जुडे सन्दर्भ को राष्ट्रपति को वापस भेज दिया। इसके बाद जनवरी 1995 में इस मामले की सुनवाई उच्च न्यायालय की लखनऊ खंडपीठ में फिर से शुरु हो गयी। उच्चतम न्यायालय ने अधिग्रहीत परिसर में यथास्थिति बनाये रखने के आदेश दिये।

मामले को जल्दी निपटाने के लिए उच्च न्यायालय ने मार्च 2002 में प्रतिदिन सुनवाई करने का निर्णय लिया। न्यायालय ने पांच मार्च 2003 को अधिग्रहीत परिसर में पुरातात्विक खुदाई के आदेश दिये। खुदाई 12 मार्च से सात अगस्त 2003 तक चली। उसी वर्ष 22 अगस्त को पुरातत्व विभाग ने अपनी रिपोर्ट न्यायालय को सौंप दी।

दावा किया गया था कि पुरातात्विक खुदाई में प्राचीन मूर्तियों और कसौटी के पत्थरों के अवशेष मिले हैं। रिपोर्ट की मुखालफत करने के लिए मुस्लिम पक्ष ने न्यायालय में आठ गवाह पेश किये, जिसमें से छह हिन्दू थे जबकि रिपोर्ट के पक्ष में याची देवकी नन्दन अग्रवाल की ओर से चार गवाह पेश हुए।

11 अगस्त 2006 को मुस्लिम पक्ष की ओर से पुरातात्विक रिपोर्ट के खिलाफ आपत्तियों के सम्बंध में गवाहियों का क्रम समाप्त हो गया। अग्रवाल की ओर से पुरातात्विक रिपोर्ट के पक्ष में 17 अगस्त 2006 से 23 मार्च 2007 तक गवाही चली।

यही नहीं, सन् 1991 में मामले के एक प्रमुख वादी परमहंस रामचन्द्र दास ने अपना वाद वापस ले लिया था इसलिए उच्च न्यायालय की लखनऊ खंडपीठ ने मूलरुप से चार वादों पर ही सुनवाई की।
26 जुलाई, 2010 को इस मामले की सुनवाई पूरी हुई।

फैसले पर रोक लगाने और बातचीत से मसले का हल निकालने की मांग को लेकर सेवानिवृत्त नौकरशाह रमेश चन्द्र त्रिपाठी ने उच्च न्यायालय में अर्जी दायर किया। 17 सितम्बर, 2010 को उच्च न्यायालय ने त्रिपाठी की याचिका खारिज कर दी।

त्रिपाठी ने इसी आशय की याचिका उच्चतम न्यायालय में दाखिल की। 28 सितम्बर को शीर्ष अदालत में भी उनकी याचिका खारिज हो गई। शीर्ष अदालत ने उच्च न्यायालय को मामले का फैसला 30 सितम्बर को 3.30 बजे सुनाने का आदेश दे दिया।

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