Monday, October 18, 2010

हो गई है पीर पर्वत - दुष्यंत कुमार


हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए

आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी
शर्त थी लेकिन कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए

हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए

2 comments:

  1. दुष्यन्त कुमार की इस खूबसूरत रचना के लिए आभार...।
    सुविधा के लिए ग़ज़ल, ब्रज भाषा-साहित्य, कविता आदि के लिए अगर लेबिल बना दें तो और अच्छा होगा...।

    प्रियंका गुप्ता

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    1. शिखा जी सुझाव देने कम लिए धन्यवाद् आपके सुझाव के अनुसार ब्लॉग को सूबसूरत लेबल बना दिया है

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